By नजीर अकबराबादी
सुनिए ऐ जाँ कभी असीर की अर्ज़
अपने कूचे के जा पज़ीर की अर्ज़
छिद गया दिल ज़बाँ तलक आते
हम ने जब की निगह के तीर की अर्ज़
उस घड़ी खिलखिला के हँस दीजे
है यही अब तो कोहना पीर की अर्ज़
जब तो उस गुल-बदन शकर-लब ने
यूँ कहा सुन के इस हक़ीर की अर्ज़
अब तलक धुन है हुस्न-ए-दंदाँ की
देख इस पोपले 'नज़ीर' की अर्ज़
अपने कूचे के जा पज़ीर की अर्ज़
छिद गया दिल ज़बाँ तलक आते
हम ने जब की निगह के तीर की अर्ज़
उस घड़ी खिलखिला के हँस दीजे
है यही अब तो कोहना पीर की अर्ज़
जब तो उस गुल-बदन शकर-लब ने
यूँ कहा सुन के इस हक़ीर की अर्ज़
अब तलक धुन है हुस्न-ए-दंदाँ की
देख इस पोपले 'नज़ीर' की अर्ज़
By नजीर अकबराबादी
ये दिल-ए-नादाँ हमारा भी अजब दीवाना था
उस को अपना घर ये समझा था जो मेहमाँ-ख़ाना था
थे जो बेगाने यगाने उन को गिनता था ब-जाँ
इस क़दर ग़फ़्लत में अक़्ल-ओ-होश से बेगाना था
ले लिया मा'नी को और सूरत को जाना बे-सबात
ग़ौर से देखा तो आलम में वही फ़रज़ाना था
क्या ग़म-ए-अस्बाब ज़ाहिर का न हो जिस को क़याम
चश्म-ए-मअ'नी-बीं में यकसाँ है अगर था या न था
कहते हैं अहद-ए-सलफ़ में था कोई ऐसा मकाँ
क़ितआ-ए-ख़ुल्द उस का एक इक कुंज और काशाना था
पुर-सफ़ा ओ पुर-ज़िया ओ पुर-निगार ओ पुर-बहार
ज़ेब से सौ सौ तरह उस में जो शाख़ और शाना था
लहज़ा लहज़ा ऐश-ओ-इशरत दम-ब-दम रक़्स-ओ-सुरूर
गिर्या-ए-मीना ओ यकसर ख़ंदा-ए-पैमाना था
मालिक उस का जब वो पुश्त-ए-बाम पर फिरता था शाद
क्या कहूँ क्या क्या उसे नाज़-ए-सर-अफ़राज़ाना था
था जहाँ ये कुछ अयाँ वाँ इंक़लाब-ए-दौर से
यक मिज़ा बरहम ज़दन में कुछ न था वीराना था
वाँ तीनीस-ए-यक-मगस आए न हरगिज़ गोश में
जिस जगह शोर-ए-क़यामत साज़-ए-नौबत-ख़ाना था
ख़ूब जो देखा 'नज़ीर' इन रफ़्तगाँ का माजरा
बहर-ए-ख़ौफ़-ओ-इबरत-ए-आइंदगाँ अफ़्साना था
वाँ नज़र आया न हरगिज़ पारा-ए-संग-ए-सियाह
जिस जगह लाल-ओ-गुहर से पुर जवाहिर-ख़ाना था
उस को अपना घर ये समझा था जो मेहमाँ-ख़ाना था
थे जो बेगाने यगाने उन को गिनता था ब-जाँ
इस क़दर ग़फ़्लत में अक़्ल-ओ-होश से बेगाना था
ले लिया मा'नी को और सूरत को जाना बे-सबात
ग़ौर से देखा तो आलम में वही फ़रज़ाना था
क्या ग़म-ए-अस्बाब ज़ाहिर का न हो जिस को क़याम
चश्म-ए-मअ'नी-बीं में यकसाँ है अगर था या न था
कहते हैं अहद-ए-सलफ़ में था कोई ऐसा मकाँ
क़ितआ-ए-ख़ुल्द उस का एक इक कुंज और काशाना था
पुर-सफ़ा ओ पुर-ज़िया ओ पुर-निगार ओ पुर-बहार
ज़ेब से सौ सौ तरह उस में जो शाख़ और शाना था
लहज़ा लहज़ा ऐश-ओ-इशरत दम-ब-दम रक़्स-ओ-सुरूर
गिर्या-ए-मीना ओ यकसर ख़ंदा-ए-पैमाना था
मालिक उस का जब वो पुश्त-ए-बाम पर फिरता था शाद
क्या कहूँ क्या क्या उसे नाज़-ए-सर-अफ़राज़ाना था
था जहाँ ये कुछ अयाँ वाँ इंक़लाब-ए-दौर से
यक मिज़ा बरहम ज़दन में कुछ न था वीराना था
वाँ तीनीस-ए-यक-मगस आए न हरगिज़ गोश में
जिस जगह शोर-ए-क़यामत साज़-ए-नौबत-ख़ाना था
ख़ूब जो देखा 'नज़ीर' इन रफ़्तगाँ का माजरा
बहर-ए-ख़ौफ़-ओ-इबरत-ए-आइंदगाँ अफ़्साना था
वाँ नज़र आया न हरगिज़ पारा-ए-संग-ए-सियाह
जिस जगह लाल-ओ-गुहर से पुर जवाहिर-ख़ाना था
By नसीर तुराबी
मिलने की तरह मुझसे वो पल भर नहीं मिलता
दिल उससे मिला जिससे मुक़द्दर नहीं मिलता
ये राह-ए-तमन्ना है, यहाँ देख के चलना
इस राह में सर मिलते हैं, पत्थर नहीं मिलता
हमरंगी-ए-मौसम के तलबगार न होते
साया भी तो क़ामत के बराबर नहीं मिलता
कहने को ग़म-ए-हिज्र बड़ा दुश्मन-ए-जाँ है
पर दोस्त भी इस दोस्त से बेहतर नहीं मिलता
कुछ रोज़ ‘नसीर’ आओ चलो घर में रहा जाए
लोगों को ये शिकवा है कि घर पर नहीं मिलता।
दिल उससे मिला जिससे मुक़द्दर नहीं मिलता
ये राह-ए-तमन्ना है, यहाँ देख के चलना
इस राह में सर मिलते हैं, पत्थर नहीं मिलता
हमरंगी-ए-मौसम के तलबगार न होते
साया भी तो क़ामत के बराबर नहीं मिलता
कहने को ग़म-ए-हिज्र बड़ा दुश्मन-ए-जाँ है
पर दोस्त भी इस दोस्त से बेहतर नहीं मिलता
कुछ रोज़ ‘नसीर’ आओ चलो घर में रहा जाए
लोगों को ये शिकवा है कि घर पर नहीं मिलता।
By जाँ निसार अख़्तर
हम ने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर
और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तेरी बातें अक्सर
हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद
ग़म-ज़दा लगती हैं क्यूँ चाँदनी रातें अक्सर
हाल कहना है किसी से तो मुख़ातब है कोई
कितनी दिलचस्प हुआ करती हैं बातें अक्सर
इश्क़ रहज़न न सही, इश्क़ के हाथों फिर भी
हम ने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक्सर
हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर
उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर
हम ने उन तुंद-हवाओं में जलाए हैं चराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर!
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर
और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तेरी बातें अक्सर
हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद
ग़म-ज़दा लगती हैं क्यूँ चाँदनी रातें अक्सर
हाल कहना है किसी से तो मुख़ातब है कोई
कितनी दिलचस्प हुआ करती हैं बातें अक्सर
इश्क़ रहज़न न सही, इश्क़ के हाथों फिर भी
हम ने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक्सर
हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर
उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर
हम ने उन तुंद-हवाओं में जलाए हैं चराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर!